हिंदी व्याकरण से परीक्षा के लिए उपयोगी वर्तनी क्या है, व वर्तनी के नियम कितने हैं ?

'हिंदी व्याकरण (Hindi Grammar) में आज हम बात करेंगें वर्तनी की "

Vartani
हिंदी व्याकरण में वर्तनी


‘वर्तनी’ को उर्दू में ‘हिज्जे’ और अंग्रेजी में ‘Spelling’ कहा जाता है |
जिस शब्द में जितने वर्ण या अक्षर जिस अनुक्रम में प्रयुक्त होते है , उन्हें उसी क्रम में लिखना ही ‘वर्तनी’ है |

इसकी शुद्धता-अशुद्धता दो बातो पर निर्भर करती है –

1. उच्चारण 2. अध्ययन एवं अभ्यास

यदि कक्षाओं में शिक्षक और छात्र उच्चारण पर ध्यान दें,बोल-बोलकर पढ़ें (मौन पाठ नहीं), एकाग्रचित होकर वर्णों एवं उनके क्रमों पर ध्यान दें तो निश्चित रूप से निरंतर उनकी शुद्धता बढ़ती आयगी |

यहाँ वर्तनी सम्बन्धी कुछ विशेष जानकारियाँ दी जा रही है लिखते एवं बोलते समय इन नियमों का मनन करने से वर्तनी दोष निश्चित रूप से दूर हो जाएगा –

1. वर्णों की लिखावट में सावधानी :- हिंदी वर्णमाला के कुछ वर्णों की लिखावट में सावधानी की जरूरत है | यदि इस पर ध्यान नहीं दिया जाए तो दूसरों को पढ़ने में काफ़ी दिक्कत हो सकती है |

अ-आ-ओ-औ

उपर्युक्त वर्णों के लेखन में पड़ी पाई को ठीक बीच में न लिखकर नीचे लिखना चाहिए ‘ओ’लिखने में तो सावधानी बरती जाती है , परन्तु ‘औ’ लिखने के भ्रमवश बच्चे और सयाने प्राय औ – ऐसा लिख देते है | इससे बचना चाहिए |


‘ख’ को ‘र व’ को तरह न लिखें इससे ‘ख’ ,’रव’ बनकर वर्ण से शब्द बन जाएगा और अर्थ हो जाएगा – दाना |जैसे- रवादार (दानेदार)


‘घ’ पर पूरी शिरोरेखा होती है जबकि तवर्गीय व्यजंन ‘घ’ का पूर्व का गोलवाला शिरा मुड़ा होता है और मुड़े भाग तथा शिरोरेखा के बीच रिक्त स्थान रहता है |


इसी तरह थ,भ,य,श,क्ष, और श्र की लिखावट में ऊपर से मुड़े भाग के ऊपर शिरोरेखा नहीं होती | ‘भ’ के ऊपर पूरी तरह से शिरोरेखा देने पर ‘म’ का भ्रम पैदा हो सकता है |

ध,और ध्द लिखने में भी सावधानी की जरूरत है |


द्या – ‘द्’ और ‘य’ का संयुक्त रूप है | इसमें स्पष्टया ‘द्’  और ‘य’ का रूप दिखना चाहिए | यदि ‘दय’ लिखने में कठिनाई हो तो दोनों को अलग करके इस रूप में लिखना चाहिए – द्य-विद्या-विद्या |

ध्द लिखने में छात्र प्राय: ‘ध्द’ लिखकर अनर्थ कर बैठते है | मैंने ऊपर बताया है कि ‘ध’ का ऊपरी शिरा मुड़ा होता है | इसलिए ‘द्’ का ‘ध’ के साथ संयुक्त करने में या तो ‘ध’ को ‘ध’ की तरह लिखें या दोनों को अलग अलग द्ध- प्रसिद्ध सिद्ध |

2. उच्चारण में ‘अ’ का भ्रम : कुछ ऐसे संयुक्ताक्षर वाले शब्द होते है जिनमें ‘अ’ की भ्रान्ति देखी जाती है | यदि ‘अ’ को हल्का यानी झटके के साथ बोला जाए (यद्यपि पूर्व में ‘अ’ नहीं है तथापि) तो यह कठिनाई नहीं होगी और शुद्धता भी बनी रहेगी | जैसे 

स्थान स्मारक स्तूप 

स्कूल स्थायी स्तुति 

स्नान स्त्रोत स्त्री 

स्पर्श श्मशान स्थूल

3. ‘इ’/’ई’ का भ्रम : ध्वनि पाठ में पढ़ा जा चुका है कि ‘इ’ स्वर है और ‘ई’ दीर्घ स्वर | ‘इ’ को हल्का और ‘ई’ को स्वराघात के साथ उच्चरित करने पर यह भूल नहीं होगी | ‘इ’ की मात्रा से पूर्व के वर्ण को स्वराघात के साथ और बाद वाले को झटके से बोलने पर ह्रस्व स्पष्ट उच्चरित होगा | जैसे -

 मति (‘म’ पर जोर ‘ति’ को झटके से)

 इसी तरह गति, तिथि, बुद्धि,रीति ,नीति आदि का उच्चारण करें | 

’इ’/ई न रहते हुए भी इसकी उपस्थिति का भ्रम पैदा करनेवाले कुछ शब्द है :स्त्री(स से पहले ‘इ’ का आना )

प्यास (प से पहले ‘इ’ का आना)

इसी प्रकार त्यों, ज्यों,प्यार, ज्योत्स्ना,क्या,हुष्ट,व्यापक,व्यूह, क्यों,व्याकरण आदि में ‘इ’ की मात्रा न रहते हुए भी इसके होने का भ्रम रहता है |

नीचे कुछ ऐसे शब्दे दिए जा रहे है जिनमें अनावश्यक रूप से ‘इ’ की मात्रा का प्रयोग कर दिया जाता है –

1. अशुद्ध--अहिल्या --- शुद्ध-- अहल्या


2. अशुद्ध--छिपकिली --- शुद्ध-- छिपकली


3. अशुद्ध--फिजूल --- शुद्ध-- फजूल


4. अशुद्ध--प्रदर्शिनी --- शुद्ध-- प्रदर्शनी


5. अशुद्ध--द्वारिका --- शुद्ध-- द्वारका


6. अशुद्ध--वापिस --- शुद्ध-- वापस


7. अशुद्ध--पहिला --- शुद्ध-- पहला




4. ‘उ’/ऊ का भ्रम :
कहीं कहीं ‘उ’/ऊ का भ्रम देखा जाता है जैसे - 

स्वास्थ्य (स में उ का भ्रम 

स्वागत (स में उ का भ्रम)

इसी तरह, स्वस्थ स्वचालित स्वाध्याय स्वाभाविक स्वार्थ स्वभाव स्वल्प

इस भ्रम का एक कारण तो यह कि यण स्वर संधि के कारण ‘उ’ का ‘व’ में रूपान्तर होता है | जैसे -- 

सु + अल्प =स्वल्प 

सु + आगत =स्वागत

परन्तु,सभी शब्दों में ऐसा नहीं होता | जैसे--

स्व + अर्थ = स्वार्थ

 स्व + अध्याय = स्वाध्याय

ध्यातव्य : उपर्युक्त शब्दों में मुख्य रूप से एक बात ही सामने आती है कि प्राय: ‘स्व’ से शुरू होनेवाले शब्दों में ही ‘उ’ की मात्रा का भ्रम होता है | ध्यान रहे, यदि उच्चारण एकदम हल्का यानी झटके से हो तो उसमें अ,इ,उ या ऊ का मात्रा नहीं आएगी |

5. ‘छ’,च्छ और क्ष का भ्रम : हम जानते है कि ‘छ’ एक स्वतंत्र व्यंजन वर्ण है जबकि ‘च्छ’ और ‘क्ष’  संयुक्त व्यंजन | ‘च्छ’ के उच्चारण में ‘अ’ का आभास नहीं होता, लेकिन ‘क्ष’ में ऐसा होता है | ‘क्ष’ के उच्चारण में ‘अ’ के आभास का कारण है – ‘क्ष’ की रचना या उत्पति में ‘अ’ की सहभागिता

क + ष + अ = क्ष

हम देखते है कि ‘क’ और ष दोनों अस्वर व्यंजन है और ‘अ’स्वर है | यद्यपि दोनों में (क और ष) स्वर नहीं है तथापि उच्चारण करने में ‘अ’ की उपस्थिति का आभास होता है |

‘च्छ और छ में ‘अ’ की उपस्थिति है परन्तु ‘क्ष’ की तरह पूर्व में नहीं | क्ष का उच्चारण ‘अकछ’ की तरह होता है और मूर्धा की भूमिका बढ़ जाती है | अत: यदि ‘क’ युक्त ‘छ’ का उच्चारण हो तो ‘क्ष’ का प्रयोग करना चाहिए और ‘क’ नहीं रहने पर ‘छ’ या च्छ’ |

दूसरी बात यह कि ‘छ’ के उच्चारण में संगम नहीं होता  परन्तु ‘च्छ’ के उच्चारण से पूर्व हल्का सा ठहराव देखा जाता है | इन शब्दों के उच्चारण पर ध्यान दें – कुछ (एक साथ उच्चारण) , अच्छा (अ के बाद हल्का ठहराव)

तीसरी और महत्वपूर्ण बात यह कि ‘क्ष’ का प्रयोग प्राय: तत्सम शब्दों (संस्कृत के शब्दों) में होता है जबकि ‘छ’ का देशज में | जैसे --

तत्सम शब्द 

क्षण,शिक्षा,अक्षय,लक्ष्य,परीक्षा,प्रत्यक्ष,समीक्षा, शिक्षक,क्षेत्र,प्रतीक्षा,साक्षी , निरीक्षक, अधीक्षक,अपेक्षा,दीक्षा,शिक्षिका,क्षति, क्षत्रिय, लक्ष, नक्षत्र, समक्ष, उपेक्षा, क्षीण, क्षिप्र | 

देशज शब्द 

 छाता, छलिया,छड़ी, छप्पर, छदाम, छुपाना, छाती, छिटकना, छनछनाहट, छाछ,छल, छपाक, छत, छटपटाना, छुछुन्दर, छुरी, छाली |


6. ण और न का प्रयोग : सावधानीपूर्वक उच्चारण नहीं करने के कारण इन दोनों वर्णों में भ्रम की स्थीति पैदा होती है | हमारे प्रारम्भिक शिक्षक इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार है | वे ‘ण’ को बड़ी ‘न अथवा मूर्धन्य न और ‘न’ या छोटी ‘न’ कहकर छात्र छात्राओं को भ्रमित कर देते है |

ये दोनों नासिक्य व्यंजन है | ण के उच्चारण में वायु मूर्धा को छुटी हुई नाक से निकलती है जबकि ‘न’ के उच्चारण में वायु दांत को छुती हुई नाक से निकला करती है | इसलिए यदि ण को ‘अर अं या मूर्धन्य ‘न’ और ‘न’ को सीधे ‘न’ या दन्त्य ‘न’ कहा जाए तो भ्रम न के बराबर होगा |

सामान्यतया ,ऋ,र,ष के बाद ‘ण’ का प्रयोग होता है परन्तु मध्य में कोई स्वर वर्ण, क्वर्गीय या पवर्गीय व्यंजन अथवा य,व,ह रहे तो ‘न’ का प्रयोग होगा |

7. ‘ब’ और ‘व’ का भ्रम : ‘ब’ और ‘व’ के प्रयोग में सतर्क रहना चाहिए | ध्यान रहे कि संस्कृत में ‘ब’ का प्रयोग नहीं के बराबर होता है , ठीक इसके विपरीत हिंदी में ‘ब’ का प्रयोग ज्यादा होता है | नीचे लिखे शब्दों पर ध्यान दें - 

’ब’ वाले संस्कृत शब्द : बंधु, ब्रह्म,ब्रह्मा, बकुल, बक (बगुला),ब्राह्मण, आबद्ध, आबंध,पदबंध,बुदघ,बर्बर,बाधा,बाला,बलि,बुभुक्षा, बिबिसार,बीज,बालक,बालिका,प्रतिबिम्ब,बृहत् | 

’व’ वाले संस्कृत शब्द : वायु, विलास,वधू,वसंत,वर्जन,विनय,व्यवहार,ब्याज,व्याल,वंश,वन्दना,वदन,वत्स,वहन,निर्वहन,वक्र,व्यास, व्याधि ,व्यथा ,व्यवधान,स्वभाव,स्वर्ग, स्वान्त, स्वार्थ , स्वल्प, स्वाधीन,स्वस्थ, वंचना,वपु, वन्य, वसुधा, विजय ,वाचाल, व्यापक |

हिंदी उर्दू में प्रयुक्त ब वाले कुछ शब्द : बसंत, बदमाश, बज्र, ब्रज, बंदूक, जवाब, बिलाअकल,बदतभीज, बदहजमी, बदनसीब, बनाना, बदसूरत, बन्दा |

‘वट’ प्रत्ययांत शब्दों में भूलकर भी ‘वट’ की जगह ‘बट’ नहीं लगाना चाहिए | जैसे – थकावट, बनावट,सजावट, लिखावट मिलावट आदि |

ध्यातव्य :  कहीं – कहीं ‘व’ एवं ‘ब’ के प्रयोग से एक ही शब्द के अर्थ में भारी भेद देखा जाता है इसलिए पूरी सावधानी से इनका प्रयोग करना चाहिए | जैसे - 

बहन – भगिनी, बहिन 

बहन- ढोना 

बाद -उत्तर 

वाद -तर्क,विचार 

बल – ताकत 

वल -मेघ 

बार – दफ़ा 

 बात – वचन,बोली 

वात – हवा 

बंदी – कैदी

नोट : हम ऐसे शब्दों की विस्तृत चर्चा श्रुतिसम भिन्नार्थक या युग्म शब्द सूची में करेंगे |

8. ’ एवं ‘ढ’ का प्रयोग : ध्वनि पाठ में बताया जा चूका है कि ‘ढ़’ , ‘ढ’ का ही विकसित रूप है |

‘ढ़’ के उच्चारण में हल्का ‘र्’ की झलक होती है | इन दोनों के प्रयोग में यही अंतर है कि ‘ढ़’ का प्रयोग शब्दों के मध्य या अंत यानी प्रथम वर्ण छोड़कर कहीं भी किया जाता है , जबकि ‘ढ’ का सिर्फ शुरू में | नीचे के उदाहरणों देखें ---

ढोलक,ढूँढ, पढ़ना,चढ़ना,गढ़ना,मढ़ना, बढ़ना, ढलान, गढ़, चढ़ाई,बाढ़,मेंढ़क, ढक्कन,बढ़ई, ढीठ आदि |

इसी तरह ,’ड़’ का प्रयोग मध्य या अंत में और ‘ड’ का शुरू में करना चाहिए |

डमरू, डगमगाना, डकार, डकैत, उड़ना, सड़क, जड़त्व, तड़पना, भड़क आदि |

9. ‘श’ , ‘ष’ एवं ‘स’ का प्रयोग

A. यदि किसी शब्द में ‘स’ हो और उसके पहले ‘अ’ या ‘आ’ हो  तो ‘स’ नहीं बदलता | जैसे – दस (‘स’ से पहले अ), पास,घास,विशवास,इतिहास,(स से पहले आ)

B. यदि अ/आ से भिन्न स्वर रहे तो ‘ष’ का प्रयोग होता है | जैसे – विषम, भूषण , प्रेषित, आकर्षित, हर्षित, धनुष, पुरुष, आभूषण, आकर्षण आदि |

C. टवर्ग के पूर्व ‘ष’ का प्रयोग होता है | जैसे- क्लिष्ट, विशिष्ट, शिष्ट, षोडश, नष्ट, षडानन, कष्ट, भ्रष्ट, आदि |

D. ‘ऋ’ के बाद ‘ष’ का प्रयोग होता है | जैसे – ऋषि, महर्षि, कृषि , वृष्टि, कृषक, तृषित, ऋषभ |

E. आगे ववर्ग , रहने पर ‘श’ का प्रयोग होता है | जैसे- निश्चित, निश्चय, निश्छल आदि |

F. यदि ‘श’ एवं ष दोनों का  साथ प्रयोग हो तो पहले ‘श’ फिर ‘ष’ का प्रयोग होगा | यदि ‘स’ भी रहे तो क्रमशः स, श, और ष होगा | जैसे – विशेष, विशेषण, शेष, विशेष्य, शोषण,शीर्षक, विश्लेषण, संश्लेषण आदि |

G. उपसर्ग  के रूप में आने वाले ‘नि:’ ‘वि’ के साथ मूल शब्द का ‘स’ ज्यों का त्यों रहता है | जैसे – नि:संशय, विस्तार,विस्तृत,नि:संदेह, विस्तीर्ण आदि |

H. आगे ‘तवर्ग’ रहने पर ‘स’ का प्रयोग होता है | जैसे – विस्तार, निस्तार, प्रस्तर, स्तरीय, स्थायी, आदि |

I. प्राय: ऐसा देखा जाता है कि जिन तत्सम शब्दों में ‘श’ रहता है उनके तद्भव से ‘ स ‘ आ जाता है | जैसे – शूली – सूली , शूकर – सूअर, कैलाश – कैलास, शाक – साग, श्वसुर – ससुर, शिर – सिर , दश – दस |

नोट: दोनों रूप प्रचलन में हैं |

J. संधि करने पर क,ख, प,फ़, ट,ठ आदि के पूर्व आनेवाला विसर्ग सदा ‘ष’ में परिणत हो जाता है | जैसे --- पृ + ठ > पृष + थ > पृष्ठ, नि: + कपट = निष्कपट

10. ‘अनुस्वार’ और चन्द्रबिन्दु का प्रयोग : शिरोरेखा से ऊपर लिखी जानेवाली मात्राओं के ऊपर सामान्यतया ‘अनुस्वार’ तथा नीचे लिखी जानेवाली मात्राओं के ऊपर चन्द्रबिन्दु का प्रयोग होता है | जैसे – शिरोरेखा के ऊपर – मैं,क्यों, हैं, उनहोंने, उन्हें, इन्हें, इन्होंने, किन्हें, किन्होंने, जिन्हें, जिन्होंने |

शिरोरेखा के नीचे – कहाँ, आँगन, जहाँ, गाँधी, आँधी,काँख, आँख, जाँघ, माँद, बाँध |

पंचमाक्षर के बदले भी अनुस्वार का प्रयोग होता है | पंचमाक्षरवाले शब्दों का प्रयोग तत्सम (संस्कृत) में ज्यादा होता है | जैसे- पंचमाक्षर वाले – वन्दना,सम्पादक, बन्दर, अन्त, सम्भव |

अनुस्वारवाले --- गंगा, वंदना, चंचल, खंजन,संपादक, बंदर, अंत, संभव |


11. ‘ज’ एवं ‘ज़’ का प्रयोग : ‘ज़’ एक अत्यंत संघर्षी व्यंजन है | इसके उच्चारण में वायु तालु से ज्यादा रगड़ खाती है | यह प्राय: उर्दू फ़ारसी के शब्दों में प्रयुक्त होता है, जबकि ‘ज’ एक सामान्य तालव्य व्यंजन है | इसके उच्चारण में वायु सामान्य रूप से तालु से स्पर्श करती है | नीचे के उदाहरणों को देखें 

ज – जहाज, जलावन, जलपान, जवान, जानकार, जीवन, उज्ज्वल, उजला

ज़ – नज़र, रोज़, रोज़गार, बाज़ार, इज्ज़त, चीज़ |

12. ‘त्त’ का प्रयोग : सामान्यतया , ‘तत्’ , ‘महत्’, और सत्त् में ‘त्व’ प्रत्यय जुड़ने पर ‘त्व’ प्रत्यय जुड़ने पर ‘त्त’ का प्रयोग होता है | सच्चाई यह की ‘तत्’, महत्, और सत् में पूर्व से ही ‘त्’ है जो ‘त्व’ से जुड़कर (‘त’ का) द्वित्व हो जाता है | जैसे – तत् + त्व = तत्व, महत् + त्व = महत्व, सत् + त्व = सत्य

उत्तरावस्था और उत्तमावस्था में ‘तर’ एवं ‘तम’ प्रत्यय जुड़ने के कारण भी ‘त्’ अंतवाले शब्द द्वित्व हो जाते है | जैसे – महत् + तर = महत्तर (उत्तरावस्था में), महत् + तम = महत्तम (उत्तमावस्था में)

ध्यातव्य : बहत- सारे छात्र खासकर गणित में ‘महत्तम’ की तरह ही ‘लघुत्तम’ का प्रयोग कर गलती कर बैठते है | शुद्ध रूप ‘लघुतम’ होता है |

13. ‘इ’ एवं ‘ई’ का मात्रा का प्रयोग : किसी स्त्रीलिंग संज्ञा शब्द के अंत में ‘ई’ रहने पर उसके बहुवचन रूप बनाने में ‘ई’ की जगह ‘इ’ की मात्रा का प्रयोग होता है | जैसे –लड़की – लड़कियाँ, जाली – जालियाँ, गाड़ी – गाड़ियाँ, खिड़की – खिड़कियाँ, स्त्री – स्त्रियाँ , जाली – जालियाँ, शादी – शादियाँ, नदी – नदियाँ, सब्जी – सब्जियाँ, नदी – नदियाँ |



अकारान्त या आकारान्त पुंलिंग संज्ञा के स्त्रीलिंग रूप में ‘ई’ की जगह मात्रा लगाई जाती है | जैसे – देव – देवी, बाछा – बाछी , लड़का – लड़की, बूढ़ा – बूढ़ी, घोड़ा – घोड़ी, नद – नदी |


अन्त में ‘इत’ का उच्चारण होने पर ‘इ’ की मात्रा लगाई जाती है | जैसे – फलित, कथित, चित्रित, परिवर्तित, पुष्पित, लिखित, चिन्हित , जनहित |


ईला/ईय का उच्चारण होने पर ‘ई’ की मात्रा लगनी चाहिए | जैसे – रंगीला, गर्वीला, प्रांतीय, राष्ट्रीय, जहरीला, जातीय, पुस्तकीय, शर्मीला, नशीला, जलीय, भड़कीला, चमकीला, दर्शनीय, कबीला, पठनीय, कथनीय |


‘ई’ की उपेक्षा ‘इ’ का उच्चारण हल्का होता है , क्योकि ‘इ’  ह्रस्व है और ‘ई’ दीर्घ | ‘इ’ की मात्रा का उच्चारण करने से पूर्व के वर्ण पर ज़ोर देकर ‘इ’ को झटके से बोलना चाहिए | निम्नलिखित शब्दों का इसी तरह उच्चारण करें -- 

 गति, शनि, जीविका, नास्तिक, नीति, शान्ति, कोटि, अद्वितीय, तिथि, स्थिति, माचिस, दीवाली, मुनि, कालिदास, तिरस्कार, भागीरथी, पुष्टि , बुद्धि, गृहिणी, सम्पत्ति, हानि, आजीविका, रचयिता, प्रतिनिधि , सरोजिनी, नीरोग, मैथिलीशरण, प्रकृति, स्त्री, मानसिक, आशीर्वाद, चाहिए, महीना,निरिक्षण, प्राकृतिक, प्रदर्शनी, समीक्षा, छिपकली, पीताम्बर, कुमुदिनी, मंदिर, परिवार, शिविर, परिचय, सीमित, निवासी, श्रीमती, युधिष्ठिर, पाकिस्तान, परिमार्जित, अभिमान, नायिका, समिति, जीवित, कवि, आस्तिक, संस्कृत,दीपावली, आध्यात्मिक, वाहिनी, प्रीति, लेकिन, कवयित्री, महाबली, बाघिन, पत्नी, हिजड़ा, आशिष, वर्तनी |


‘इक’ का उच्चारण (अंत में) होने पर ‘इ’ की मात्रा लगानी चाहिए | जैसे –

आर्थिक , धार्मिक, नैतिक, दैनिक, मासिक, ऐतिहासिक, पारलौकिक, भौगोलिक, मानसिक, स्वर्गिक, रासायनिक, प्राकृतिक, सामाजिक, साप्ताहिक, वैवाहिक,वार्षिक, आध्यात्मिक, लौकिक, ऐहलौकिक, औद्योगिक, शारीरिक, भौतिक, सार्वदेशिक |


14. ‘उ’ और ‘ऊ’ का प्रयोग : ऊकारान्त स्त्रीलिंग संज्ञा के बहुवचन रूप बनाने में ‘ऊ’ की जगह ‘उ’ की मात्रा उगाई जाती है | जैसे – वधू – वधुएँ, बहू – बहुएँ |


‘र’ के साथ ‘उ’ की मात्रा लगाने पर ‘रु’ और ‘ऊ’ की मात्रा लगाने पर ‘रू’ , ऐसा रूप बन जाता है | जैसे – गुरु, पुरुष, रूद्र, रुपया, पुरुषोत्तम, रूठ, स्वरूप, जरूरी |


‘उ’ का उच्चारण झटके से और उसके पहले के वर्ण पर जोर देकर करना चाहिए |नीचे लिखे शब्दों को बोल-बोलकर लिखने का अभ्यास करें – अनूदित, धुआँ, भुजा, कुसुम, सुई, झाड़ू, चाकू, ऊधम, नूपुर, वधू, सुमन, उत्सुक, खुशबू, नींबू, उत्थान, रूई, बहू, भिक्षुक, जंतु, लहू, आलू, कुआँ, रेणु, कुटुम्ब, सिंदूर,वस्तु, बदबू, भालू, तूफान, सूरज, भंगुर, उम्र, आँसू, लट्टू, तम्बाकू, दुबारा, ऋतु, साधु, चतुराई, डाकू, जादू, बाबू, दूसरा, बाहु, आयु, मुकुन्द, स्कूल, बिच्छू, बबुआ |


15. ‘रेफ’ (र्) का प्रयोग : ‘रेफ’ , ‘र्’ का ही रूप है | जिस वर्ण के बाद ‘र्’ का झटके से उच्चारण हो, ठीक उस वर्ण के बादवाले वर्ण पर ‘रेफ’ का प्रयोग होता है | जैसे – गर्म, शर्म, धर्म, मर्म, परिवर्तन, निर्झर, निरर्थकम नर्तक, कर्तव्य,  तर्क, मर्मर, सार्थक, समर्थन, चर्चा, कर्ज, वर्ष, वर्षा, गर्जन, वर्मा, बर्मा, धैर्य, वार्षिक, महर्षि, सप्तर्षि, समावर्तन, उत्तीर्ण, अनुत्तीर्ण, दर्पण,वर्णन, कीर्तन, समर्पण, दर्शन |

16. योजक – चिन्ह (-) का प्रयोग : योजक चिन्ह (हायफ़न) का प्रयोग निम्नलिखित स्थानों पर होता है –

a. द्वन्द्व समास के समस्तपदों और सहचर पदों के बीच : 

जैसे – माता – पिता,  अंधा-काना, राजा-रंक, लूला-लंगड़ा, अमीर-गरीब, इधर-उधर 

b. यदि दो पदों के बीच किसी कारक चिन्ह की उपस्थिति का पता चले तो दोनों के बीच : जैसे पेड़ – पौधे पर्यावरण संरक्षक है |(का/के चिन्ह की उपस्थिति), गृह प्रवेश की तिथि नजदीक है | (में’ चिन्ह की उपस्थिति)

c. यदि पूर्ण द्विरुक्त के बीच परसर्ग/निपात रहे तो उस परसर्ग/निपातके दोनों ओर : जैसे – बसही बांध के टूटने से सर्वत्र पानी-ही-पानी दिखाई पड़ रहा था कारण, गाँव-का-गाँव जलमग्न हो चुका था |

d. सादृश्यता/तुलना के लिए सा/से/सी/जैसा/जैसे/जैसी के पहले : जैसे – चाँद-सा चेहरा, तुम-सा कोई, उनके-जैसा भाई

17. परसर्ग/कारक चिन्ह का प्रयोग : बच्चे प्राय: कारक चिन्हों(परसर्ग) के प्रयोग में गलती कर बैठते है जैसे – मोहन को पर्वतपर चढ़ना नहीं आता | 

मैं ने गलती नहीं की थी | 

उनमेंसे कोई नहीं था |


ऊपर के तीनों वाक्य गलत है | हमे इस बात की सावधानी रखनी चाहिए कि परसर्ग, संज्ञा, से अलग लिखा जाता है ; सर्वनाम के साथ जुड़ा रहता है ; किन्तु लगातार दो परसर्ग रहे तो पहला सर्वनाम से जुड़ा रहेगा और दूसरा उससे अलग अंत इस आधार पर उक्त तीनों वाक्य होंगे :

1. मोहन को पर्वत पर चढ़ना नहीं आता | (संज्ञाओं से अलग) 

2. मैंने गलती नहीं की थी |(सर्वनाम से जुड़ा) 

3. उनमें से कोई नहीं था | (‘में’ जुड़ा और ‘से’ अलग)


18. हलन्त का प्रयोग 

a. मान/वान/हान प्रत्ययान्त शब्दों में हलन्त का प्रयोग अवश्य होना चाहिए | जैसे – श्रीमान, आयुष्मान,महान, विद्वान आदि |

b. प्रथम, पंचम,षष्ठम, सप्तम, अष्टम, नवम और दशम में हलन्त का प्रयोग नहीं होता |

c. त्/आम/उत् प्रत्यांत तत्सम शब्दों में हलन्त का प्रयोग किया जाता है | जैसे – स्वागतम्, विद्युत्, जगत्, परिषद् , आदि |

d. व्यंजनों के संयुक्त रूप में हलन्त के प्रयोग से ज्यादा स्पष्टता आती है | जैसे – विद्या, शुद्ध, |

ध्यातव्य : उपर्युक्त शब्दों का प्रचलन इस रूप में भी है – विद्या, शुद्ध,कुत्ता |

19. वाला/वाली/वाले/कर आदि प्रत्ययों का प्रयोग : उपर्युक्त प्रत्ययों के प्रयोग में बड़े बड़े लोग भी गलतियाँ कर बैठते है | इन प्रत्य्यों में से वाला/वाली/वाले का प्रयोग विशेषण बनाने के लिए और ‘कर’ का प्रयोग पूर्वकालिक क्रिया या क्रियाविशेषण बनाने के लिए होता है | 

प्रत्यय कभी शब्दों से अलग नहीं लिखे जाते | 

जैसे – दूधवाला आया है | फलवाले ने अजीव आवाज़ निकाली | 

वह खाकर चला गया है | श्यामू बैठकर खाता है |

20. ‘कि’ एवं ‘की’ का प्रयोग 

a. ‘कि’ योजक का काम करता है अर्थात् दो वाक्यों को जोड़ता है | जैसे – माना कि वस्तु का क्रयमूल्य 100रु. है | इनमें ‘ माना’ यानी हमने/मैंने माना और वस्तु का क्रयमूल्य 100रु. है, इन दोनों वाक्यों को ‘कि’ जोड़ने का काम कर रहा है | इसी तरह उसने कहा था कि इस साल भी गरमी काफ़ी होगी |

b. यदि वाक्य में ‘इसलिए’ का प्रयोग हो तो ‘क्योंकि’ का प्रयोग न कर ‘कि’ का प्रयोग ही करना चाहिए | जैसे – ‘जल’ यौगिक इसलिए है कि इसमें हाईड्रोजन के दो और आक्सीजन का एक परमाणु है | ऐसा इसलिए कहा जाता है कि वह अपना विश्वास खो चूका है | ‘की’ का प्रयोग दो रूपों में होता है |

i. दो पदों के बीच सम्बन्ध दर्शाने में : 

 जैसे – ‘राजू की गाय’ बहुत दूध देती है | 

’गोपी की माँ’ सबको प्यार करती है | 

’सोनू की बहन’ पढ़ने में काफ़ी तेज है |

ii. ‘करना’ क्रिया के भूतकालिक रूप में प्रयोग : 

जैसे – मैंने लड़ाई नहीं ‘की’ | 

उसने अच्छी पढ़ाई ‘की’ थी |

21. संधि – सम्बन्धी भूलें –

1. अशुद्ध :- अनाधिकार

• शुद्ध :- अनधिकार(अं + अधिकार)


2. अशुद्ध :- अत्योक्ति

• शुद्ध :- अत्युक्ति(अति + उक्ति)


3. अशुद्ध :- जात्याभिमान

• शुद्ध :- जात्यभिमान(जाति + अभिमान)


4. अशुद्ध :- आछादान

• शुद्ध :- आच्छादन(आ + छादन)


5. अशुद्ध :- उज्वल

• शुद्ध :- उज्ज्वल(उत् + ज्वल)


6. अशुद्ध :- यावतजीवन

• शुद्ध :- यावज्जीवन(यावत् + जीवन)


7. अशुद्ध :- अत्यार्धिक

• शुद्ध :- अत्यधिक(अति + अधिक)


8. अशुद्ध :- उपरोक्त

• शुद्ध :- उपर्युक्त(उपरि + उक्त)


9. अशुद्ध :- तदोपरान्त

• शुद्ध :- तदुपरान्त(तद्द + उपरान्त)


10. अशुद्ध :- जगरनाथ

• शुद्ध :- जगन्नाथ(जगत् + नाथ)


11. अशुद्ध :- महत्व

• शुद्ध :- महत्त्व(महत् + त्व)


12. अशुद्ध :- उछवास

• शुद्ध :- उच्छवास(उत् + श्वास)



ध्यातव्य : संधिपद का संधि विच्छेद करके देख लेना चाहिए कि उनके नियमों का उल्लंघन तो नहीं हुआ है |


कुछ अन्य शब्द जिसमें गलतियाँ होती है :

1. अशुद्ध :- छत्रछाया

• शुद्ध :- छत्रच्छाया


2. अशुद्ध :- सत्गुण

• शुद्ध :- सद्गुण


3. अशुद्ध :- सम्हार

• शुद्ध :- संहार


4. अशुद्ध :- अन्तरगत

• शुद्ध :- अंतर्गत


5. अशुद्ध :- अन्तर्रात्मा

• शुद्ध :- अन्तरात्मा


6. अशुद्ध :- तेजमय

• शुद्ध :- तेजोमय


7. अशुद्ध :- दुस्कर

• शुद्ध :- दुष्कर


8. अशुद्ध :- तिर्ष्कार

• शुद्ध :- तिरस्कार


9. अशुद्ध :- दुशासन

• शुद्ध :- दु:शासन


10. अशुद्ध :- अधस्पतन

• शुद्ध :- अध: पतन


11. अशुद्ध :- सन्मुख

• शुद्ध :- सम्मुख


12. अशुद्ध :- अंतर्कथा

• शुद्ध :- अन्त: कथा


13. अशुद्ध :- सन्यासी

• शुद्ध :- संन्यासी


14. अशुद्ध :- अध:गति

• शुद्ध :- अधोगति


15. अशुद्ध :- दुरावस्था

• शुद्ध :- दूरवस्था


16. अशुद्ध :- निस्छल

• शुद्ध :- निश्छल


17. अशुद्ध :- बिमार

• शुद्ध :- बीमार


18. अशुद्ध :- नभमंडल

• शुद्ध :- नभोमण्डल


19. अशुद्ध :- पुरष्कार

• शुद्ध :- पुरस्कार


20. अशुद्ध :- बहिस्कार

• शुद्ध :- बहिष्कार


21. अशुद्ध :- दुसाध्य

• शुद्ध :- दु:साध्य


22. अशुद्ध :- निरलम्ब

• शुद्ध :- निरालम्ब


23. अशुद्ध :- निर्दयी

• शुद्ध :- निर्दय


24. अशुद्ध :- निरोग

• शुद्ध :- नीरोग


25. अशुद्ध :- दिवार

• शुद्ध :- दीवार


26. अशुद्ध :- निर्दोषी

• शुद्ध :- निर्दोष



22. प्रत्यय सम्बन्धी भूलें :

a. एक ही अर्थवाले दो प्रत्यय लगाना- 

अज्ञानता --- अज्ञान, उत्कर्षता --- उत्कर्ष, औदार्यता --- औदार्य/उदारता, गौरवता --- गौरव/गुरुता , धैर्यता --- धीरता/धैर्य, बाहुल्यता --- बहुलता/बाहुल्य, साम्यता --- साम्य/समता, सौजन्यता --- सौजन्य/सुजनता, आधिक्यता --- अधिकता/आधिक्य, ऐक्यता --- एकता, दारिद्रता --- दरिद्रता |

b. विशेषण से भाववाचक संज्ञा बनाने में : 

उपयोगता --- उपयोगिता, महानता --- महत्ता, स्वतंत्रा --- स्वतंत्रता, नियमित्ता --- नियमितता, व्यस्ता --- व्यस्तता, स्थायीत्व --- स्थायित्व

c. विशेषण बनाने में : अक्षुण्य --- अक्षुण्ण , दुस्साध --- दु:साध्य, सिंचित --- सिक्त , दरिद्री --- दरिद्र, मान्यनीय --- माननीय, भाग्यमान --- भाग्यवान, शान्तमय --- शान्तिमय, स्वस्थ्य --- स्वस्थ, निर्लोभी --- निर्लोभ, परिवारिक --- पारिवारिक, अभिष्टित --- अभीष्ट, गोपित --- गुप्त, प्रफुल्लित --- प्रफुल्ल, पूज्यनीय --- पूजनीय निरपराधी --- निरपराध, व्यापित –-- व्याप्त |

d. ये दोनों प्रचलित है और सही भी : 

दुकान --- दूकान, अंजलि --- अंजली, अनुमित --- अनुमानित , क्रुद्ध --- क्रोधित, सरदी --- सर्दी, तुरग --- तुरंग, पाउंड --- पौंड, बिलकुल --- बिल्कुल, विहग --- विहंग, आत्मा --- आतमा, कलश --- कलस , कोशल --- कोसल, घबराना --- घबडाना, चाहिए --- चाहिये, दम्पती --- दम्पति, विशिष्ठ --- वसिष्ठ, सामान्यत: --- सामान्यतया, अगार --- आगार, उषा --- ऊषा, गरमी --- गर्मी, वरदी --- वर्दी, भुजग --- भुजंग, हलुआ --- हलवा, रियासत --- रिआसत, एकत्र --- एकत्रित, ग्रस्त --- ग्रसित, हेतु --- हेतू, पिंजरा --- पिंजड़ा, यूरोप --- योरोप, सत्रह --- सतरह |

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